*’भारतीय भाषाओं के विस्तार से होगा भाषाई पत्रकारिता का विकास’*
*’भारतीय भाषाओं के प्रयोग क्षेत्र का विस्तार और मीडिया’ विषय पर आईआईएमसी में दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन*
*नई दिल्ली, *भारतीय जन संचार संस्थान* और *भारतीय भाषा समिति* के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन सत्र को संबोधित करते हुए *वरिष्ठ पत्रकार एवं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र* ने कहा कि भाषा का सम्मान, मां का सम्मान है। जब हम अपनी भाषा का सम्मान करेंगे, तभी हम अपने संस्कारों और संस्कृति का भी सम्मान कर पाएंगे। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं के विस्तार के साथ भाषाई पत्रकारिता का विकास करना है, तो आपको अपनी भाषा या बोली पर गर्व करना होगा और उसका ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करना होगा। इस अवसर पर भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक *प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी*, वरिष्ठ पत्रकार *विशंभर नेवर*, भारतीय भाषा समिति के सहायक कुलसचिव *जेपी सिंह*, डीन (छात्र कल्याण) एवं संगोष्ठी के संयोजक *प्रो. प्रमोद कुमार* सहित आईआईएमसी के सभी प्राध्यापक, अधिकारी एवं विद्यार्थी उपस्थित रहे।
समापन सत्र के मुख्य अतिथि के रूप में विचार व्यक्त करते हुए *अच्युतानंद मिश्र* ने कहा कि अंग्रेजी भाषा अपने साथ जो संस्कार और जीवन दर्शन लेकर आई थी, उसने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारे पास कुछ नहीं है। इस कारण भारतीय भाषाओं में जो अमूल्य सामग्री है, वह उपेक्षित हो रही है। इस उपेक्षा की वजह से हमें बहुत तकलीफ झेलनी पड़ी है। इसका हमारे संस्कारों और जीवन मूल्यों पर भी असर पड़ा है।
मिश्र के अनुसार भारतीय भाषाएं भले ही दबी रही हों, लेकिन भारतीय भाषाओं में साहित्य खूब रचा गया और बेहतरीन साहित्य रचा गया। आज जरुरत है कि साहित्य अकादमी की तरह अंत:भाषीय अकादमी आरंभ की जाए, क्योंकि भाषाओं के बीच संवाद खत्म हो गया है। इसे पुन:स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। इस तरह की अकादमी से भाषाओं के बीच संपर्क और सौहार्द बढ़ेगा।
*यह समापन नहीं आरंभ है : प्रो. द्विवेदी*
इस अवसर पर भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक *प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी* ने कहा कि संगोष्ठी के इस सत्र को समापन सत्र कहा जा रहा है। यह समापन सत्र नहीं है, बल्कि एक नया आरंभ है, जिसमें हमें अपने साथ भारतीय भाषाओं के विकास का एक नया संकल्प लेकर जाना है। उन्होंने छात्रों का आह्वान करते हुए कहा कि भारतीय जन संचार संस्थान के रूप में आप सब विद्यार्थियों को एक अवसर मिला है। आप लोग इसका लाभ उठाएं और अपने-अपने क्षेत्र की भाषाओं का और उन भाषाओं की पत्रकारिता का विस्तार करें।
*स्वतंत्रता संग्राम में भाषाई समाचार पत्रों की अहम भूमिका : नेवर*
वरिष्ठ पत्रकार *विशंभर नेवर* ने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाषाई समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही है। उन्होंने हर तरह का खतरा उठाकर, अपना सब कुछ दांव पर लगाकर अखबार निकाले, ताकि लोगों में आजादी की अलख जगाई जा सके। उन्होंने कहा कि आज अंग्रेजी अखबारों के आगे भाषाई अखबार दबे नजर आते हैं, जबकि औसतन एक अंग्रेजी अखबार को डेढ़ व्यक्ति और भाषाई अखबार को 5 से 6 लोग पढ़ते हैं। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए हमें मिलकर प्रयास करने होंगे।
*ताकत और कमजोरियों को भी समझना जरूरी : केतकर*
संगोष्ठी के दूसरे दिन *’भारतीय भाषाई मीडिया : चुनौतियां और संभावनाएं’* विषय पर विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए ‘आर्गेनाइजर’ के संपादक *प्रफुल्ल केतकर* ने कहा कि अवसर और चुनौतियों को समझने के लिए ताकत और कमजोरियों को भी समझना जरूरी है। वर्ष 2019 में गूगल और ट्विटर ने भारतीय भाषाओं के चयन का विकल्प दिया, तो भारतीय भाषाओं ने मिलकर अंग्रेजी को पछाड़ दिया। उन्होंने कहा कि आज भारतीय भाषाओं के कई शब्दों और अंकों को नई पीढ़ी भुलाती जा रही है। यह एक बड़ी चुनौती है।
*भावनाएं तय करती हैं मीडिया की भाषा : प्रणवेन्द्र*
भारतीय जन संचार संस्थान में अंग्रेजी पत्रकारिता विभाग की पाठ्यक्रम निदेशक *प्रो. संगीता प्रणवेन्द्र* ने कहा कि अपनी भाषा सुनकर हर कोई भावुक हो जाता है। यही भावनाएं तय कर रही हैं कि मीडिया की भाषा क्या होनी चाहिए। भारतीय भाषाओं की ताकत यही है कि ये जुबां से नहीं, दिल से बोली जाती हैं। उन्होंने कहा कि भारत भाषाई दृष्टि से कितना समृद्ध है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया में जितने देश हैं, उससे तीन गुना ज्यादा भारत में भाषाएं हैं। पिछले एक दशक में युवा तकनीक की मदद लेकर भारतीय भाषाओं को नया जीवन दे रहे हैं।
*तकनीक ने बढ़ाए भारतीय भाषाओं में जीविका के अवसर : दुबे*
*’डिजिटल तकनीक और भारतीय लिपियां’* विषय पर आयोजित तकनीकी सत्र को संबोधित करते हुए प्रभासाभी डॉट कॉम के संपादक *नीरज दुबे* ने कहा कि तकनीक ने भारतीय भाषाओं में जीविका के अवसर बढ़ाए हैं। इससे भारतीय भाषाओं का भविष्य उज्ज्वल होगा। आज इंटरनेट पर हिंदी और भारतीय भाषाओं को लिखना, पढ़ना और उपयोग करना, पहले के मुकाबले बहुत आसान हो गया है। अब सरकार की योजनाओं की जानकारी विधिवत रुप से भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध है। उन्होंने कहा कि भाषा के विस्तार, विकास और उज्ज्वल भविष्य के लिए हम सबको अपने-अपने स्तर पर प्रयास करने होंगे।
*भारतीय भाषाओं के विकास की राह में कई बाधाएं : तरोटे*
पुणे से पधारे *डॉ. सुधीर तरोटे* ने कहा कि व्यावसायिक शिक्षा के अवसर भारतीय भाषाओं में उपलब्ध न होना बड़ी समस्या है। भारत की हर भाषा ज्ञान की दृष्टि से समृद्ध है, लेकिन इसका उपयोग तभी है, जब हर भाषा का ज्ञान भंडार दूसरी सभी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी का प्रभुत्व हमारे सामने बड़ी समस्या है। हमारी प्रगति और समृद्धि के अधिकतर अवसर दस प्रतिशत अंग्रेजी बोलने वालों के हिस्से में आते हैं। बाकी नब्बे प्रतिशत सिर्फ इसलिए उनसे वंचित रह जाते हैं, क्योंकि वो अंग्रेजी में प्रवीण नहीं होते। तकनीक इन समस्याओं के समाधान में हमारी मदद कर सकती है, लेकिन इसमें अभी काफी सीमाएं हैं। जितना सपोर्ट हमें अंग्रेजी के उपयोग में मिलता है, उतना भारतीय भाषाओं में नहीं मिल पाता।
*गूगल ट्रांसलेट से काफी अलग है ‘अनुवादिनी’ : डॉ. चंद्रशेखर*
अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के मुख्य समन्वय अधिकारी *डॉ. बुद्ध चंद्रशेखर* ने *’भारतीय भाषाओं में सार्थक अनुवाद’* विषय पर विचार व्यक्त करते हुए कि गूगल से किए गए अनुवाद में भाषा को लेकर जो कमियां और शिकायतें रहती हैं, उन्हें हमने ‘अनुवादिनी’ टूल में दूर करने का प्रयास किया है। ‘अनुवादिनी’ एक ‘ग्लोबल टेक्स्ट’ और ‘वॉयस एआई लैंग्वेज ट्रांसलेशन टूल’ है। इसमें भारत, एशिया और शेष विश्व की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं को शामिल किया गया है। किसी भी भाषा से किसी भी भाषा में अनुवाद किया जा सकता है और इसमें आपके डॉक्यूमेंट की प्राइवेसी भी सुरक्षित रहती है।
*मानवीय पक्ष से सार्थक होगा अनुवाद : डॉ. बाबु*
पोंडिचेरी विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष *डॉ. सी. जय शंकर बाबु* ने कहा कि जब हम मशीन से अनुवाद करते हैं, तो वह सार्थक नहीं होता है। यह तकनीकी पक्ष है, मानवीय पक्ष नहीं। जब इसमें मानवीय पक्ष होगा, तभी वह वास्तविक अर्थों मे सार्थक बनेगा। उन्होंने कहा कि अगर हमें कम समय में अनुवाद करना है, तो मशीन की मदद ले सकते हैं, लेकिन अगर उसमें गुणवत्ता चाहिए, तो हमें उसमें मानवीय योगदान देना ही होगा। मशीन के अनुवाद में आत्मा नहीं होती। हर भाषा का अपना एक संस्कार होता हैं, जो मानवीय अनुवाद में ही संभव है।
कार्यक्रम का संचालन *डॉ. रिंकू पेगु* , *डॉ. विकास पाठक* एवं *अंकुर विजयवर्गीय* ने किया। धन्यवाद ज्ञापन *प्रो. राकेश गोस्वामी* ने किया।