Home देश-दुनिया व्यंग्य:  चाणक्य होने का भ्रम !  

व्यंग्य:  चाणक्य होने का भ्रम !  

by Surendra Tripathi

              इस दुनिया में जब से कॉर्पोरेट सेक्टर ने दखलंदाजी शुरू की है ,तब से लोगो की लाइफ स्टाइल में भी अद्भुत परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा है । मैं कॉर्पोरेट सेक्टर के मायने को काफी विस्तृत रूप मे लेकर चलता हूं । केवल वस्तुओं का उत्पादन ही इस सेक्टर का विषय नहीं माना जाना चाहिए ,बल्कि हर वह गतिविधि जो मुद्रा से संबंध रखती हो उसे कॉर्पोरेट सेक्टर का हिस्सा माना जाना चाहिए । यही वह नवीनीकृत रूप है जिसने कुछ लोगों के जीवन स्तर को नया अमलीजामा भी पहनाया है । इसे एक अच्छा कदम माना जाना चाहिए कि मनुष्य अपने विकास के लिए नित नए ठिकानों की खोज कर रहा है ।  मेहनत को शायद गर्व का विषय नहीं बनाया जाना ही उचित हो सकता है । आज मानवीय समाज में यही गलत संदेश पहुंच रहा है कि यदि आपके पास कोई अधिकार है तो उसे खुद को चाणक्य मानते हुए उपयोग में लाएं ! अनेक बार यही सोच उस कहावत को चरितार्थ करती देखी जा रही है जो अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने से संबंध रखती है ।
मैने अपने शहर में ऐसे अनेक लोगों को देखा है जिन्हें अपने पद के अहंकार ने ऐसी पटखनी दी की वे फिर नहीं संभल पाए । बावजूद ऐसे लोगों से सीख लेने के लोगों की गतिविधियों में कोई बदलाव नहीं आया । फिर वह कहावत भी याद आती है जिसमे स्पष्ट रूप से करनी और भरनी को सामने लाते हुए कहा गया है :-” बोए पेड़ बबूल का , आम कहां से होए ।” मैने ऐसे विद्वानों को अपने बीच पाया है जो थोड़ी सी विद्वता पाकर खुद को दुनिया का बादशाह समझने लगे , जबकि उनसे कहीं कम समझ रखने वाले उन्हीं के बीच रहते हुए उस स्थान पर विराजमान हो गए जिसकी कल्पना शायद उन्होंने नहीं की थी । यह उनकी सहजता ही थी जिससे कॉर्पोरेट सेक्टर के जानकारों ने अनुभव कर उन्हें उच्च पद का अधिकारी बना दिया । केवल सूट, बूट और टाई की चमक धमक के साथ सीना तानकर चलना और स्वयं को तीरंदाज मान लेने से ही योग्यता का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है । कुछ तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अपनी कसीदाकारी के लिए हर असंभव काम को संभव कर दिखाने के लिए सतत प्रयासरत होते हैं । खुद के अंदर कुछ विशेष न होते हुए भी ऐसे लोग बड़े बड़े ख्यातिनाम पुरस्कारों को मैनेज कराते हुए अपने नाम करने से बाज नहीं आते हैं । मैं जिस तरफ आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं ,वह शख्स भी ऐसी ही सोच का वजीर है । ऐसे ही जीवित किंतु मरी हुई आत्मा के पुजारी ने  मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है । मैं ऐसे लोगों से प्रेरणा लेते हुए ईश्वर से यही प्रार्थना करना चाहता हूं कि जिस दिन मेरी सोच इन जैसे लोगों की ओर खिंचने लगे उस दिन मेरी सांसे थम जाएं ।
आखिर मैं इस तरह की बातें क्यों कर रहा हूं ? यह एक बड़े सवाल के रूप में मेरे हितैषी पाठक खड़ा कर सकते हैं । मेरा मन विगत कुछ दिनों से बहुत ही विचलित है । कारण यह कि सूट, बूट , टाई धारक एक छद्म चाणक्य ने अपनी कुटिल चाल चलते हुए मां सरस्वती के एक परम आराधक को वह दर्द दिया जिसका भागी वह नहीं था । उस विशुद्ध आचरण वाले शिक्षा के पुजारी से पूजा का अधिकार छीनने की चेष्ठा कथित चाणक्य को खुशियां तो दे गई, किंतु क्षणिक आनंद ने उसे फिर कालीदास बनाकर ही छोड़ा । जिस डाल पर वह बैठा था उसी डाल पर कुल्हाड़ी चलाते हुए वह यह नहीं समझ पाया की डाल के कटते ही वह जमीन पर धराशाई होकर गिर पड़ेगा । हुआ भी यही डाल के गिरते ही सूट, बूट और टाई पर वह दाग लगा जिसे न तो सर्फ से धोया जा सका न ही एरियल की शक्ति काम कर पाई और न ही सुपर शक्ति रिन की सफेदी ही काम आई।
आखिरकार कॉर्पोरेट जगत ने बहुत जल्द ही इस तथ्य को समझ लिया कि कहीं न कहीं उनसे भूल हुई है और जल्द ही उसे न सुधारा गया तो पूरा सेक्टर ही कैंसर जैसी जान लेवा बीमारी का शिकार हो सकता है । अब वह समय आ गया था जब सूट, बूट और टाई की बड़ी सर्जरी करनी थी । ऐसे में कॉर्पोरेट जगत के जाने माने खिलाड़ियों ने कदम उठाया और नासूर हो चुके कैंसर को जड़ से खत्म करने उसे जलाकर ही छोड़ा ।
एक बड़ी घटना के बाद लगभग गुमनामी के दौर के किनारे पहुंच चुकी संस्था ने चाणक्य बनने की कोशिश को अंजाम तक पहुंचने से पूर्व ही दफन कर दिया । छोटे बच्चों से लेकर अपने भविष्य को समझने वाले विवेकशील बच्चों ने भी संस्था के बुद्धिजीवियों की कल्पना को प्रणाम किया और कथित चाणक्य की चाल की आलोचना का दौर शुरू हो गया । आप सभी जानते हैं कि किसी भी संस्था से कई परिवारों का जुड़ाव होता है । वह संस्था जहां लोग काम कर रहे हैं वह उनकी कर्मभूमि होती है । अपनी कर्मभूमि के सबसे बड़े कर्मवीर के दामन पर दाग लगाने की कोशिश करने वाले की हरकत समझ में आने के बाद और बड़ी सर्जरी के उपरांत सद्भावना पूर्ण वातावरण  ने लोगों को खुशियां मनाने का अवसर प्रदान किया । संस्था के शूरवीरों ने भी अपने सहयोगियों का साथ दिया और शानदार उल्लासमय माहौल में सभी के पैर थिरक उठे । यदि इस उल्लास में कोई नहीं था तो वह कथित और खुद को चाणक्य समझने वाला शख्स ही था । वह इस खुशी का हिस्सा न बनते हुए कहीं खुद गुमनामी का अहसास करते हुए आंसू ही बहा रहा था । चूंकि मैं सारी गतिविधियों से वाकिफ होते आ रहा था , इसलिए जब सारा कुछ खुशनुमा हो गया तो मेरा भी मन मयूर की तरह नांच उठा । इतने बड़े घटनाक्रम का पटाक्षेप होते ही मेरा मन और आत्मा मुझसे कह उठे चाणक्य बनने से पूर्व चाणक्य के गुणों को अपने अंदर पैदा करना जरूरी होता है ,अन्यथा परिणाम वही होता है जिसे साहित्य में ” अधजल गहरी छलकत जाए “ की उपमा से जाना जाता है ।
डॉ . सूर्यकांत मिश्रा
राजनांदगांव (छ. ग.)

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