एक नई कहावत का चलन विगत कई दशकों से सिस्टम में दिखाई पड़ रहा है । कहते हैं कि बादाम का हलुआ पचाने के लिए शरीर भी बदामी होना चाहिए ! मुझे तो यह सौ – फीसदी सत्य ही लगता है । कमजोर शरीर में बादाम की तासीर घुलने नहीं पाती और वह अपना रास्ता ढूंढकर बाहर निकल ही जाती है । कमजोर शरीर इससे शिथिल पड़ जाता है । इसीलिए शायद प्रति वर्ष बजट रूपी बदामी हलुआ कुछ मनन – चिंतन के बाद आम लोगों से लेकर खास तक को परोसा जाता है । अब यह बात अलग है कि किसे यह हलुआ पचता है और किसे बदहजमी की बीमारी दे जाता है । भला इसमें परोसने वाले की क्या गलती ? हमारी जनता को तो आदत पड़ गई है कि वह बिना कुछ सोचे – समझे अनाप – शनाप बकना शुरू कर देती है । जरा इस बात पर गौर फरमाएं कि अपनी प्यारी जनता को बदामी हलुआ परोसने की तैयारी कितने महीनो पहले शुरू की जाती है । यदि इसे बनाने में रसोइए से अधिक घी गिर जाए और आप उसे न पचा सकें तो भला गलती परोसने वाले की है या फिर आपके कमजोर शरीर की ? जरा इस पर भी विचार करें , फिर कुछ आलोचना की बरसात करें !
हमारे एक विचार विज्ञ मित्र ने भौहें नचाकर बड़ी ही नाराजगी भरे लहजे में अपना दुखड़ा सुनाना शुरू कर दिया । यहां तो खाने को चने नहीं ऊपर से तुम जले में नमक छिड़कने का काम कर रहे हो । हमने तो बादाम का हलुआ देखा तक नहीं और तुम हजम करने की बात करके हमारा मखौल क्यों उड़ा रहे हो । अपनी नाराजगी को समाप्त न करते हुए वह धारा प्रवाह कहे जा रहा था । एक तो पेट भरने को अनाज तक को नहीं बख्शा गया और तुम मिठाई रूपी हलवे की बात छेड़ कर गरीबी का मजाक उड़ानें से बाज नहीं आ रहे हो । मैं लाख अपनी सफाई देने का प्रयास कर रहा था ,किंतु मेरा मित्र मेरे होठों को मानों सिल ही दिया हो । वह कोई मौका छोड़े बिना पूरे दुखी मन से कहे जा रहा था कि तुम इलेक्ट्रिक वाहन और मोबाइल सहित ऐसी ही वस्तुओं के दामों को कम करने से संतुष्ट दिख रहे हो । इनसे क्या पेट भरा जा सकता है ? रही बात संसद और विधानसभाओं की तो वहां रहने वाले दाल – चावल की ओर देखते भी नहीं ! उन्हें तो बस काजू, किसमिस ,बादाम ,पिस्ता और न जाने क्या – क्या चावल – दाल की तरह नजर आता है , गरीब का भोजन इनकी नींद हराम कर देता है । मैने बड़ी मुश्किल से अपने मित्र को रोका और समझाया कि बादामी हलुआ उन्होंने तुम्हें खाने से कहां रोका है ? पहले अपने शरीर की इम्यूनिटी पावर तो बढ़ाव , फिर उन्हें कोसना ! यदि तुमने उक्त हलुआ खा लिया तो इस दुनिया में सांस लेने के लिए बच पाओगे या फिर राम नाम ….. के साथ बिदाई ले लोगे ? मेरे इस सवाल से मित्र महोदय का दिल टूट गया और वे लंबे – लंबे कदमों से मैदान छोड़ गए ।
मुझे तो बादाम के हलूए का स्वाद अंदर तक परेशान कर रहा था । मैने भी ठान लिया था कि आज कुछ भी हो जाए हलुए के स्वास्थकर प्रभाव का गुणगान तो करके ही रहूंगा । मैने भी दिशा बदली और अपने सुनने वालों को तलाशने लगा । आखिर मेरी कोशिश सफल हुई और बड़े ही सज्जन गुरुजी से मुलाकात हो गई ।अब मैंने मोर्चा सम्हाल लिया और शिक्षक महोदय कुछ बोलें इससे पहले मैंने ही अपने होंठ नाचने शुरू कर दिए । वही सवाल बदामी हलुआ फिर मैदान में कुलांचे मारने लगा । जैसे ही मैंने शरीर के लिए पौष्टिक हलुआ पुराण शुरू किया , शिक्षक महोदय ने अपनी प्रतिक्रिया परोस दी । जिस हलूए की तुम तारीफ कर रहे हो वह आम आदमी के घर पर न तो बनता है और न ही कहीं से पहुंचता है , फिर पचने और न पचने की बात ही कहां पैदा होती है ? केवल बादाम ही नहीं काजू ,किसमिस , पिस्ता से बना और सजा हलुआ देश की संसद की सीमा पार ही नहींं कर सकता है ! यही कारण है कि महज एक वर्ष के भीतर संसद में पहुंचा हमारा और तुम्हारा जन – प्रतिनिधि चालीस किलो से अस्सी किलो तक पहुंच जाता है । नुकसान केवल यह होता है कि इस जमात से निकलने के बाद भी उसका शरीर दाल – चावल , सब्जी – रोटी को बर्दाश्त करने लायक नही रह जाता है । इसी कारण उन्हें मोटी रकम ऐसे ही हलूए और पौष्टिक खाद्य पदार्थ के लिए पेंशन रूप में प्रदान की जाती है । अब तुम इसे उसके सेहत की देखभाल की मेडिसिन कहो या कुछ और , इससे न तो संसद की सेहत बिगड़ती है और न ही उसे खाने वाले की !
मेरा और शिक्षक महोदय का साथ भी कुछ देर का ही था , वे भी मुझसे असहमत होते हुए वहां से निकल पड़े । अब मेरी नजरें किसी और को खोजने लगीं । इतने में मुझे सामने से बड़ी कद – काठी और आकर्षक डील – डौल वाली आकृति आती दिखाई पड़ी । कुछ पास आने पर अब मैं ही मैदान छोड़ने की स्थिति में था । वे सज्जन कोई और नहीं बल्कि बजट समेट कर चलने वाले लाल बख्से के हिमायती थे । जैसे ही वे मेरे समीप आए मैने सौजन्य वश हाय – हैलो का सहारा लिया और निकलने को हुआ , किंतु उनके बलिष्ठ हाथों ने मेरे नाजुक कंधों को दबोच लिया ! मैं हिलने – डुलने की स्थिति में नहीं था । अब उन्होंने मोर्चा सम्हाला और कहने लगे पूरे मोहल्ले को हलुआ का स्वाद बताने वाले कुछ हमें भी तो बताओ । क्या हुआ जो हलुआ हर किसी को नही पच रहा है । बादाम , काजू , किसमिस और पिस्ता हर कोई खा सकता है ,किंतु पहले उसके लिए शरीर में ताकत पैदा करे और उसे चूसने के लिए लपलपी जुबान को तैयार करे । क्या हुआ जो, जन – प्रतिनिधि का छत्तीस इंची सीना छप्पन इंची हो गया ? आखिर अपनी जनता के लिए रात – दिन बेचैन रहने वाला शख्स भी तो इसी समाज का हिस्सा है । तुम्हारा क्या बिगड़ जायेगा कि कोई बादामी हलुआ खाए और कोई चटनी – रोटी को अपना भोजन बनाए । पेट तो दोनो का ही भर रहा है ! सरकार की प्रसंशा करनी चाहिए कि उसने तुम्हारे मनोरंजन का ध्यान रखा और इलेक्ट्रोनिक समानों को सुलभ बना दिया । क्या तुम धन्यवाद के दो शब्द नहीं कह सकते कि उन्होंने सब कुछ भूलने के लिए एलईडी टी वी के दाम घटा दिए ! पूरा घर दाल – भात खाओ …प्रभु के गुण गाओ की धुन पर खुशी नहीं मना सकता ? अब मैं मैदान छोड़ने की स्थिति में था । मैने उनसे अनुनय पूर्वक कंधा छोड़ने की गुजारिश की और मुंह की खाकर घर की ओर लौट पड़ा ।
डॉ.सूर्यकांत मिश्रा
राजनांदगांव ( छ. ग.)
बजट व्यंग्य……बादाम का हलुआ यूं ही नहीं पचता !
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