अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस 01 अक्टूबर…….
आज का मनुष्य जीवन के एक पड़ाव के बाद संघर्ष के अंधकार में गुम हो रहा है । आज जीवन व्यवसायी और आर्थिक चुनौतियों के आगे घुटनों के बल सरक रहा है । जी हां ! मैं बात करना चाह रहा हूं बुढ़ापे की । वास्तविकता में झांका जाए तो बुढ़ापा जीवन का स्वर्णिम संध्या काल है । प्राणियों के जीवन का वह दौर है, जिससे हर किसी को गुजरना है । यह भी सत्य है कि बुढ़ापे में व्यक्ति बच्चों जैसा व्यवहार करने लगता है । इस इक्कसवीं सदी में जरूरी हो गया है कि बूढ़े लोग समय के साथ कदम मिलाकर चलें । कारण यह कि आज की पीढ़ी बहुत तेजी के साथ असमय ही सयानी होने लगी है । यदि बुजुर्ग व्यक्ति इस पीढ़ी की सोच के साथ न चल सके तो यह सुनिश्चित है कि वह समय की रफ्तार में पिछड़ जायेगा । बढ़ती आयु संबंधी दिक्कतों के कारण जब शरीर थकने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है तो दूसरों पर निर्भरता कचोटने लगती है । व्यक्ति अवसाद में जाने लगता है , जो बुढ़ापे की सबसे बड़ी कमजोरी है । आज के समय में किसी के पास घर के बुजुर्गों की बात सुनने, उनके दुखड़े समझने का समय नहीं है ! आज की पीढ़ी कुछ हद तक सुविधाएं जुटा सकती है , सहायक रख सकती है , किंतु खुद समय नहीं दे सकती । ऐसी परिस्थिति में बुजुर्गों को जिस भावनात्मक और मानसिक राहत की जरूरत होती है , वह उससे वंचित रह जाता है ।
हम यह जानते हैं कि शारीरिक अक्षमता बुजुर्गों को कहीं आने – जाने नहीं देती । यही कारण है कि उन्हें खुद का जीवन दूसरों पर भार नजर आने लगता है । एक स्वाभिमानी व्यक्ति जिसने हमेशा संघर्ष किया हो उसे यह कतई स्वीकार नहीं होता है । उसे तो आज भी संघर्ष की राह ही पसंद आती है ,विनती अथवा पलायन की नहीं । हमारा आज का समाज चाहे वह गरीब वर्ग से नाता रखता हो अथवा रईस वर्ग से , अपने बुजुर्गों को जीते जी हाशिए में डालने से परहेज नहीं कर रहा है । मैं यदि पारिवारिक जिम्मेदारी को ताक पर रख दूं और सरकार के रवैए की बात करूं तो भी बुजुर्गों के लिए रोशनी दिखाई नहीं पड़ती है ! बुजुर्गों के लिए ट्रेन में अब नीचे की सीट का आरक्षित होना भी बंद कर दिया गया है । किराए में छूट को बंद कर अथवा कम कर दो से ढाई करोड़ की बचत करते हुए रेलवे विभाग भले खुद की पीठ थपथपा ले , किंतु यह मानवीय किसी भी रूप में नहीं माना जा सकता है । अस्पतालों में लंबी कतारों में खड़े बुजुर्ग अंदर ही अंदर व्यवस्था के साथ सरकार को कोस रहे हैं । हमारी सरकारें बुजुर्गों को वृद्धावस्था पेंशन के नाम पर भिखारियों को मिलने वाली भीख से भी कम राशि देकर खुद को उनका रहनुमा बताने से पीछे नहीं हट रही है ।
जीवन के इस काल में खुद को तंदरुस्त और मस्तिष्क को तरोताजा रखना हो तो बुजुर्गों को अपने जीवन में किसी शौक को तवज्जो देना श्रेयस्कर रहेगा । मैने मेरे अपने शहर में कई सक्रिय बुजुर्गों को ऐसे शौक पालते देखा है । ऐसे लोगों में अधिकांश ने अपनी उम्र के इस पड़ाव को गीत – संगीत से जोड़कर रखा है । कुछ ने धार्मिक प्रसंगों को सुनने – सुनाने में खुद को व्यस्त रखा है । सबसे ज्यादा उत्साहित बुजुर्गों ने इस उम्र को सृजनात्मकता के हवाले कर लेखन कार्य को अपना रखा है । लेखकीय जीवन जी रहे आठवें और नवें दशक में चल रहे वरिष्ठ लोगों का जीवन ऊर्जावान दिखाई पड़ रहा है । ऐसे लोगों को गोष्ठियों और आयोजनों में शामिल देख मैं अपनी उम्र को भूल जाता हूं और इन पर गर्व महसूस करता हूं । जब बुजुर्गों को मैं ऐसे ही किसी कार्य में व्यस्त और मस्त देखता हूं तो मुझे फिराक गोरखपुरी जी का शेर याद आता है । वे कहते हैं :-
” वास्ते जिंदगी के कोई रोग पाल लो
सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी चलती नहीं “ जीवन में रचनात्मक शौक ही वह कार्य है जो सबसे अहम होता है । यही व्यर्थ की चिंताओं और कष्टों से बुजुर्गों को दूर रखता है । साथ ही बुढ़ापे में समय काटने की समस्या से निजात दिलाता है । एक बात जरूर याद रखनी होगी कि एकाकीपन छोड़कर हमे सामाजिकता का दायरा बढ़ाना होगा ।
समय बड़ी तेजी के साथ बदल रहा है और अपने रंग दिखा रहा है । पाश्चात्य संस्कृति ने हमारे संस्कारों पर जो प्रहार किए हैं उससे हम बुरी तरह आहत हो रहे हैं । पहले परिवारों में बुजुर्गों की सलाह पत्थर की लकीर मानी जाती थी , जो अब अतीत की बात हो गई है । आज मैं अनेक परिवारों की स्थिति को देखकर यह कहने से नहीं कतराता कि – बुजुर्गों की राय को एक मत से ठुकरा दिया जाता है । इतना ही नहीं यह कहते हुए उपहास किया जाता है कि ” बूढ़े का दिमाग सठिया गया है ।” ऐसी परिस्थितियां देखकर मुझे भी कुछ नकारात्मकता के साथ यह सोचना पड़ता है कि क्या मेरे अंदर भी अकस्मात ऐसे परिवर्तन आयेंगे ? क्या मेरा भी दिमाग सठिया जायेगा ? मैं तो ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं कि मुझे उस वक्त तक ही जीवित रखना जब तक मेरा शरीर दो वक्त की रोटी का जुगाड खुद तथा पत्नी के लिए कर सके । मैं समझता हूं इस संबंध में कुछ चर्चा बुजुर्गों की सेवा से संबंधित बच्चों के कर्तव्य पर भी होनी चाहिए , ताकि मेरे इस लेख को पढ़ने वाली पीढ़ी यह समझ सके कि उनके बुजुर्ग माता – पिता किसी एहसान के भूखे नहीं ! कानून की किताबों में यह व्यवस्था की गई है कि एक पिता अपनी संपत्ति का बंटवारा कैसे करे ? किसे करे ? किसे न करे ?
कानून में यह प्रावधान है कि वह संपत्ति जो एक पिता ने खुद बनाई है, उस पर बेटे या बेटी का कानूनी अधिकार नहीं है । बच्चे सिर्फ पिता की दया पर पर ही घर पर रह सकते हैं और संपत्ति का उपयोग कर सकते हैं । पिता की इच्छा के विरुद्ध कोई भी उस पर अपना दावा नहीं कर सकता है । पैतृक संपत्ति अर्थात ऐसी संपत्ति जो पूर्वजों द्वारा बनाई गई है , उस पर बच्चों का हक होता है , लेकिन पिता ने जो संपत्ति बनाई है उस पर पूर्ण अधिकार पिता का ही होता है । वह चाहे तो उसे अपने बच्चों को दे और न चाहे तो न दे । इसका निर्णय केवल पिता ही ले सकता है । संचार क्रांति ने आज संवाद के कई रास्ते खोल दिए हैं जो बुजुर्गों के एकाकीपन को दूर करने के लिए उम्मीद की किरणें हैं । इससे उन्हें दुनिया की ताजा हवा के झोकों का स्पर्श मिल रहा है । परिवार के हर जिम्मेदार बेटे को यह समझ लेना चाहिए कि वरिष्ठजन अनुभवों का कोष हैं । विचार और परंपरा की थाती हैं । उनके अनुभवों का लाभ उठाते हुए उनकी दृष्टि और विचारों से अपना भावी पथ आलोकित करने उद्यत होना चाहिए । उनके संघर्ष के साथ ही उनके जीवन का अनुभव कुछ समय बाद खो जाने वाला है । उसे सहज कर रखने की जरूरत को वर्तमान पीढ़ी को समझना होगा ।