मुंशी प्रेमचंद जयंती – 31 जुलाई
देश – विदेश में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद जी की लोकप्रियता ने अमर बेल का रूप अख्तियार किया हुआ है । एक अच्छा साहित्यकार अथवा श्रेष्ठ समाजसेवी वही माना जाता है , जिसके अलोचकों की संख्या कम न हो । प्रेमचंद जी के आलोचकों के अनुसार उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि वे अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की हर कठिन परिस्थिति को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता के पक्ष को कमजोर नही होने देते थे । हम जब पूरी तन्मयता के साथ मुंशी प्रेमचंद जी के साहित्य का अध्ययन करते हैं तो यह पाते हैं कि उनके उपन्यासों और कहानियों मेंं कृषि प्रधान समाज , जाति प्रथा ,महाजनी व्यवस्था एवं रूढ़िवाद की जो गहरी समझ देखने को मिलती है ,उसका सटीक वर्णन अथवा चित्रांकन महज इसलिए हो पाया , क्योंकि स्वयं प्रेमचंद जी ऐसी परिस्थितियों से गुजर चुके थे । हम यह जानते हैं कि प्रेमचंद जी का जीवन घोर निर्धनता की काली छाया से होकर निखरा था । प्रेमचंद जी का मानवीय दृष्टिकोण अदभुत कहा जा सकता है । उन्होंने मानवीय समाज से विभिन्न चरित्र उठाए । इतना ही नहीं उनकी लेखनी ने पशुओं तक को अपना पात्र बनाया । उन्होंने हीरा – मोती में जहां दो बैलों की जोड़ी , आत्माराम में तोते को पात्र बनाया तो गोदान में गाय की महिमा ही गा डाली । वे ऐसे बिरले साहित्यकार के रूप में पहचाने गए जिन्होंने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नही दिया ।
प्रेमचंद जी ने एक ऐसे उपन्यासकार , निबंधकार और कहानीकार के रूप में स्थान पाया जिसने अपने साहित्य में मानवीय समाज की समस्याएं गिनाई तो उनके समाधान का मार्ग भी सुझाया । मुंशी जी के लेखान को हम ग्राम्य जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज करार दें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । अपने लेखन में अन्याय, अत्याचार , दमन तथा शोषण आदि का प्रबल विरोध करते हुए भी वे समन्वय के पक्षपाती थे । उन्होंने कभी भी संघर्ष को महत्व नहीं दिया ,बल्कि विचारों के जरिए परिवर्तन की पैरवी की । वे मानते थे कि मनुष्य को विचारोंं के द्वारा अधिक सहजता के साथ हृदय परिवर्तन के मार्ग में लाया जा सकता है । यदि हम उनके उपन्यास , कहानी और निबंध के समीक्षाकारों की बात करें तो प्रेमचंद जी की सृजनात्मक प्रतिभा उनकी कहानियों में कहीं बेहतर ढंग से उभरकर सामने आती है । यह कहते हुए किसी प्रकार का संकोच नहीं कि प्रेमचंद जी ने हिंदी को पाला – पोसा ,बड़ा किया और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्यकारो का मार्गदर्शन किया । प्रेमचंद जी ही एक ऐसे साहित्यकार कहे जा सकते हैं जिन्होंने अपने बाद की पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर साहित्य को आम आदमी और जमीन से जोड़ा । उनका लेखन हिंदी साहित्य की ऐसी विरासत है जिसके बिना हिंदी के विकास का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता ।
कथा सम्राट कहा करते थे कि ” साहित्यकार देश भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल लेकर चलने वाली सच्चाई है । ” वे एक मात्र साहित्य सेवक कहे जा सकते हैं जिन्होंने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा । साथ ही उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्नों पर समेटा । उन्होंने आजीवन सांप्रदायिकता , भ्रष्टाचार ,जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उप निवेशवाद पर बिना आराम किए लिखते रहने का साहस दिखाया । सरल, सहज और आम बोलचाल की भाषा को अपने साहित्य का विशिष्ठ अंग बनाते हुए अपने प्रगतिशील विचारोंं को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने की अदम्य शक्ति केवल प्रेमचंद जी के साहित्य मेंं देखने को मिलती है । भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा , चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें गहराई तक प्रेमचंद जी के साहित्य में ही दिखाई पड़ती है । हिंदी कथा साहित्य को चमत्कारिक कहानियों के झुरमुट से निकालकर जीवन के यथार्थ की ओर ले जाने वाले महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद ही थे। प्रेमचंद जी न केवल भारतवर्ष बल्कि दुनियाभर के जाने – माने साहित्यकारों में सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले रचनाकार हैं । उन्होंने साहित्य के संबंध में अप्रैल 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन में कहा था : – ” जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे , आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले , गति और शक्ति पैदा न हो , सौंदर्य प्रेम का जागरण न हो , जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करे , वह हमारे लिए बेकार है । वह साहित्य नहीं कहला सकता । ”
साहित्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा :- ” हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमे उच्च चिंतन हो , स्वाधीनता का भाव हो , सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो , जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो , जो हममें गति,संघर्ष और बेचैनी पैदा करे , सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है ।” साहित्य के क्षेत्र में अति उच्च विचार रखने वाले प्रेमचंद जी को ” उपन्यास सम्राट ” के नाम से सर्वप्रथम पश्चिम बंगाल के प्रख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चटोपाध्याय ने संबोधित किया था । प्रेमचंद जी का साहित्य जगत में वही स्थान है जो सूर्य का आकाश में । उन्हें साहित्य की धरोहर से विभूषित किया जाए तो गलत न होगा । उन्होंने कथा साहित्य के लेखन में तथा साहित्य के विकास में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया । उनके द्वारा लिखित उपन्यास देश – विदेश के साहित्यकारों की आत्मा हैं । वे साहित्य को शिरोधार्य कर कहा करते थे :-
” किसी किश्ती पर अगर फर्ज का मल्लाह न हो ,तो फिर उसके लिए डूब जाने के सिवाय कोई चारा नहीं ।”
साहित्य को पैसों में तौलने वालों को आड़े हाथों लेते हुए प्रेमचंद जी ने कहा था :- ” मासिक वेतन पूर्णमासी का चांद होता है ,जो एक दिन दिखाई देता है और फिर घटते – घटते लुप्त हो जाता है । ” साहित्य के मामले में बारीक से बारीक कठिनाई को पहचानते हुए वे उसे अपने शब्दों में पिरोकर व्यंग्यात्मक लहजे में कहने से परहेज नहीं करते थे । उनकी एक बानगी इस रूप में सहेजी दिखाई पड़ती है :-
” जब किसान के बेटे को गोबर से ,
बदबू आने लग जाए ,
तो समझ लेना चाहिए कि देश
में अकाल पड़ने वाला है ।”
डॉ. सूर्यकांत मिश्रा