Home देश-दुनिया भारत को संविधान मिले 75 साल पूरे, न होता गणतंत्र दिवस तो किन चीजों से वंचित रह जाते देशवासी?

भारत को संविधान मिले 75 साल पूरे, न होता गणतंत्र दिवस तो किन चीजों से वंचित रह जाते देशवासी?

by admin

नई दिल्ली(ए)। भारत जब आज 26 जनवरी को 76वां गणतंत्र दिवस मना रहा है, तब देश के एक लोकतांत्रिक गणतंत्र के तौर पर 75 साल भी याद किए जा रहे हैं। दरअसल, भारत को आजादी 1947 में ही मिल गई थी और देश इसके बाद से ही लोकतंत्र के तौर पर स्थापित हो गया था। हालांकि, भारत लोकतांत्रिक गणतंत्र 26 जनवरी 1950 को बना, जब संविधान देश में लागू कर दिया गया।

बीते 75 वर्षों में एक लोकतांत्रिक गणतंत्र के तौर पर भारत ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं। मसलन इस दिन लागू हुए संविधान ने देश को सरकार चलाने वाले शासन की अवधारणा से अवगत करवाया। इसी के मद्देनजर देश में केंद्र और राज्य के स्तर पर सरकार चुनने के लिए चुनाव कराए जाने लगे। इसके अलावा देश में एक तेज आर्थिक विकास और उदारवाद भी देखा गया है।
आइये जानते हैं बीते 75 वर्षों में भारत की लोकतांत्रिक-गणतंत्र के तौर पर 10 बड़ी उपलब्धियां, जो संविधान के न होने पर हमें न मिलतीं।

1. मौलिक अधिकार
संविधान सभी नागरिकों के लिए व्यष्टि और सामूहिक रूप से कुछ बुनियादी स्वतंत्रता देता है। इनकी मौलिक अधिकारों की छह व्यापक श्रेणियों के रूप में संविधान में गारंटी दी जाती है जो न्यायोचित हैं। संविधान के भाग III में सन्निहित अनुच्छेद 12 से 35 मौलिक अधिकारों के संबंध में है। ये हैं:

  • समानता का अधिकार जिसमें कानून के समक्ष समानता; धर्म, वंश, जाति लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध शामिल है; इसके अलावा रोजगार के संबंध में समान अवसर शामिल हैं।
  •  भाषा और विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता का अधिकार, जमा होने संघ या यूनियन बनाने, आने-जाने, निवास करने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का अधिकार (इनमें से कुछ अधिकार राज्य की सुरक्षा, विदेशी देशों के साथ भिन्नतापूर्ण संबंध सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं)।

  • शोषण के विरुद्ध अधिकार, इसमें बेगार, बाल श्रम और मनुष्यों के व्यापार का निषेध किया जाता है।
  •  आस्था एवं अन्त:करण की स्वतंत्रता, किसी भी धर्म का अनुयायी बनना, उस पर विश्वास रखना एवं धर्म का प्रचार करना इसमें शामिल हैं।
  • किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने और अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद की शैक्षिक संस्थाएं चलाने का अधिकार; और
  • मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के लिए सांवैधानिक उपचार का अधिकार।

2. मौलिक कर्तव्य
वर्ष 1976 में अपनाए गए 42वें संविधान संशोधन में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को सूचीबद्ध किया गया है। संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 51 ‘क’ मौलिक कर्तव्यों के बारे में है। ये अन्य चीजों के साथ साथ नागरिकों को- संविधान का पालन करने, आदर्श विचारों को बढ़ावा देने और अनुसरन करने का आदेश देता है, जिससे भारत के स्वंतत्रता संग्राम को प्रेरणा मिली थी। इसके अलावा देश की रक्षा करने और जब बुलावा हो तो देश की सेवा करने और सौहार्दता एवं समान बंधुत्व की भावना विकसित करने और धार्मिकता का संवर्धन करने, भाषाविद् और क्षेत्रीय और वर्ग विविधताओं का विकास करने का आदेश देता है।

3. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत
संविधान कुछ राज्य के नीति निर्देशक तत्व निर्धारित करता है। वैसे तो ये न्यायालय में कानूनन न्यायोचित नहीं ठहराए जा सकते, लेकिन देश के शासन के लिए यह मौलिक हैं। कानून बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करना राज्यों का कर्तव्य माना जाता है। ये निर्धारित करते हैं कि राज्य हरसंभव सामाजिक व्यवस्था जिसमें- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की व्यवस्था राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में कायम करके जनता नीतियों को ऐसी दिशा देगा, ताकि सभी पुरुषों और महिलाओं को जीविकोपार्जन के पर्याप्त साधन मुहैया कराए जाएं। समान कार्य के लिए समान वेतन और यह इसकी आर्थिक क्षमता एवं विकास के भीतर हो, कार्य के अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रभावी व्यवस्था करने, बेरोजगार के मामले में शिक्षा एवं सार्वजनिक सहायता, वृद्धावस्था, बीमारी और असमर्थता या अयोग्यता की आवश्यकता के अन्य मामले में सहायता करना। राज्य कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी, कार्य की मानवीय स्थितियों, जीवन का शालीन स्तर और उद्योगों के प्रबंधन में कामगारों की पूर्ण सहभागिता प्राप्त करने के प्रयास करेगा।
4. वोट करने का अधिकार
किसी भी लोकतांत्रिक देश में सबसे महत्वपूर्ण अधिकार मत देने का अधिकार होता है। भारतीय संविधान के अनुसार देश में 18 वर्ष की आयु के ऊपर के किसी भी जाति, समुदाय और धर्म के नागरिक को चुनाव में अपने मत के उपयोग का अधिकार है। भारतीय संविधान के अनुसार, मतदान समिति के अंतर्गत पंजीकृत 18 वर्ष की आयु से अधिक का देश का कोई भी नागरिक मतदान के योग्य होता है।  प्रत्येक नागरिक राष्ट्रीय, राज्यकीय, जिला एवं अपने क्षेत्र के स्थानीय चुनाव में मतदान कर सकता है। जब तक कोई व्यक्ति अयोग्यता के नियमों की सीमा पार नहीं कर लेता उसे मतदान करने से नहीं रोका जा सकता है। प्रत्येक नागरिक को एक ही मत डालने का अधिकार है और मतदाता अपने पंजीकृत क्षेत्र में ही मतदान कर सकता है।

भारतीय संविधान के तहत लोगों को मतदान का अधिकार कितना मजबूत किया गया है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे लोग जो शारीरिक रूप से मतदान केंद्र तक पहुंच सकते उनको डाक मतपत्र से मतदान करने की सुविधा होती है। इतना ही नहीं अप्रवासी भारतीयों को भी मतदान का अधिकार दिया गया है।

5. संघीय प्रणाली, संसद-विधायिका में शक्तियों का पृथक्करण
भारत का संविधान देश को एक लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित करता है। यानी यहां शक्तियों का विभाजन संघवाद पर आधारित है। भारत में यह शक्तियां केंद्र सरकार, राज्यों में बांटी गई हैं। कुछ हद तक एक तीसरे वर्ग- पंचायत और नगरपालिकाओं को भी संविधान में अलग से शक्तियां देने का प्रावधान है।

भारत के लिए गणतंत्र दिवस कितना अहम रहा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अगर 1950 में आज के दिन संविधान लागू न किया गया होता तो देश में संघवाद की अवधारणा ही न होती। क्षेत्र और आबादी के लिहाज से इतने बड़े देश को चलाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों में शक्तियों का बंटवारा न होने की स्थिति में अव्यवस्था का माहौल भी रह सकता था। ऐसे में संविधान ने देश को संघवाद दिया, जिसमें केंद्र की शक्तियां राज्यों के मुकाबले ज्यादा रखी गईं। हालांकि, कई मुद्दों पर राज्यों की शक्ति को केंद्र द्वारा कम नहीं किया जा सकता।

6. स्वतंत्र न्यायालय
भारतीय संविधान की अनूठी विशेषताओं में से एक यह है कि संघीय प्रणाली को अपनाने और उनके संबंधित क्षेत्रों में संघ और राज्य अधिनियमों के अस्तित्व के बावजूद, यह संघ और राज्य दोनों कानूनों को संचालित करने के लिए न्यायालयों की एक एकीकृत प्रणाली प्रदान करता है।

संपूर्ण न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर भारत का उच्चतम न्यायालय है जिसके बाद प्रत्येक राज्य या राज्यों के समूह में उच्च न्यायालय आते हैं। प्रत्येक उच्च न्यायालय के प्रशासन के तहत जिला न्यायालय हैं। कुछ राज्यों में छोटे-मोटे और स्थानीय प्रकृति के सिविल और आपराधिक विवादों का निर्णय करने के लिए न्याय पंचायत, ग्राम न्यायालय, ग्राम कचहरी जैसे विभिन्न नामों के अधीन ग्राम/पंचायत न्यायालय भी कार्य करते हैं। प्रत्येक राज्य को एक जिला और सत्र न्यायाधीश की अध्यक्षता में न्यायिक जिलों में विभाजित किया गया है। जिला और सत्र न्यायाधीश एक जिले के सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकारी होते हैं।

जिला न्यायालयों में सिविल क्षेत्राधिकार के न्यायालय होते हैं, जिनकी अध्यक्षता विभिन्न राज्यों में मुंसिफ, उप-न्यायाधीश, सिविल न्यायाधीश के रूप में जाने जाने वाले न्यायाधीशों द्वारा की जाती है। इसी तरह, आपराधिक न्यायालयों के वर्गों में प्रथम और द्वितीय श्रेणी के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और न्यायिक मजिस्ट्रेट शामिल हैं।

7. धर्मनिरपेक्ष शासन
भारत के संविधान निर्माताओं ने देश को गणतंत्र घोषित करने के साथ इसे एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के तौर पर स्थापित किया। इसका मतलब है कि भारत में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म का दर्जा नहीं है और सभी धर्मों को समान दर्जा दिया जाता है। धर्मनिरपेक्षता के लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। संविधान के इस मानक की वजह से ही देश में धार्मिक समुदाय अपने हिसाब से स्कूल-कॉलेज व अन्य शिक्षण संस्थान खोलने के अधिकारी हैं। चूंकि सरकार धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को मानते हुए किसी से धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती है। इसलिए सभी धर्मों को कानून के आगे समान माना गया है। हालांकि, कुछ मामलों में अलग-अलग धर्मों को अपने हिसाब से नियमों के पालन की अलग से छूट भी दी गई है। इसे भी संविधान में पर्सनल लॉ के तहत रखा गया है।

इस लिहाज से भारत का संविधान बाकी लोकतंत्र के संविधानों से काफी अलग रहा है। जहां अमेरिका में शासन और धर्म दोनों ही एक-दूसरे के मामले में दखल नहीं दे सकते। लेकिन भारत में यह व्यवस्था है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता में शासन धार्मिक मामलों में दखल दे सकता है। यहां अलग-अलग धर्मों की ऐसी चीजों को चुनौती दी जा सकती है, जो कि संविधान या मौलिक अधिकारों के विपरीत रही है। यानी संविधान के तहत ही देश में किसी धर्म के वर्चस्व को रोकने की ताकत भी दी जाती है।

8. एकल नागरिकता
भारत का संविधन पूरे भारत वर्ष के लिए एकल नागरिकता की व्यवस्था करता है। प्रत्येक व्यक्ति जो संविधान लागू होने के समय (26 जनवरी 1950) भारत के अधिकार क्षेत्र में निवास करता था और (क) जिसका जन्म में हुआ है या (ख) उसके माता पिता में से एक भारत में जन्म लिया हो या (ग) जो कम से कम पांच वर्षों तक साधारण तौर पर भारत में रहा है, वह भारत का नागरिक हो गया। नागरिकता अधिनियम, 1955 संविधान लागू होने के बाद भारतीय नागरिकता की प्राप्ति, निर्धारण और रद्द करने की संबंध में है।
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