घर – आंगन में फुदकने वाली छोटी सी चिड़िया जिसे हम गौरैया के नाम से जानते हैं , आज उसका जीवन बड़ा ही संघर्षमय बना हुआ है । हमारे आसपास रहने वाली उस नन्ही चिड़िया को आज हमें ढूंढना पड़ रहा है । मुझे तो अपना बचपन और किशोरावस्था की याद आ रही है , जब इन्हीं नन्हीं पक्षियों के झुंड की सु – मधुर आवाज कानों में ऐसे घुल जाया करती थी कि , हमें न चाह कर भी भोर में जल्दी बिस्तर छोड़ना पड़ता था । ऐसा आभास होता था मानो अपने पूरे कुनबे के साथ आकर गौरैया हमारे साथ खेलना चाह रही हो । वह हमें देखकर और ज्यादा फुदकने लगती थी , जैसे नाच – नाच कर अपनी खुशियों से अवगत करा रही हो , कि अब मुझे खेलने के साथ ही भोजन भी मिलेगा । यह तब की बातें हैं जब हम कच्चे और आंगन वाले घरों पर रहा करते थे । आंगन में फूलों और फलों के बड़े वृक्ष भी हुआ करते थे । इन्हीं वृक्षों पर और हमारे घरों के भीतर कवेलू की छतों के नीचे गौरैया अपना नीड बनाकर रहा करती थी । अब हमारे घर बड़े और पक्की कंक्रीट की दीवारों से सज धज गए हैं । हमारा दिल इतना छोटा हो गया है कि उसमें नन्ही सी , प्यारी सी , चिड़िया गौरैया के लिए स्थान नहीं बचा है । पूरे मोहल्ले के हर घर आंगन में चहचहाने वाली गौरैया अपने नीड और अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है । पक्षियों की यह सुंदर प्रजाति उसके संरक्षण के संदर्भ में चिंता का विषय बन गई है । इतना ही नहीं अनेक देशों में गौरैया को रेट लिस्ट में डाल दिया गया है ।
पक्षियों अथवा किसी भी प्राणी के विषय में यह कोई नई बात नहीं है कि हमें उन पर दया का भाव रखना चाहिए । इसी संदर्भ में जब हम गौरैया के विषय में चर्चा करते हैं तो यह पाते हैं कि यही गौरैया हमारे पर्यावरण की सबसे बड़ी रक्षक है । हमारे खेतों में लहलहा रही फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट- पतंगों को अपनी भूख मिटाने के लिए खाने वाली गौरैया हमारी फसलों को संरक्षण प्रदान करती है । खड़ी फसलों में से अपने महज आधा या एक इंच पेट में कुछ दाने चावल , गेहूं और बाजरे के डाल यही गौरैया यह बताने का प्रयास करती है कि उन्होंने अपना मेहनताना चंद दानों के रूप में प्राप्त कर लिया है । यदि मैं एक बार फिर अपनी किशोरावस्था में लौट चलूं तो , उन दिनों की याद ताजा हो जाती है जब मेरे ज्योतिष विद्या के पारंगत और विद्वान पिता शाम के वक्त प्लेटफार्म में स्थान ग्रहण कर आंगन में चावल डाला करते थे । कुछ ही देर में सैकड़ों गौरैया चूं .. चूं करते उन दानों को चुगने पहुंच जाया करती थी । शाम का वह समय पांच से छह के बीच का हुआ करता था । पुण्य – प्रतापी पिताजी के स्थान ग्रहण करने से पूर्व ही गौरैया अपने परिवार और समाज सहित कलरव करते हुए पिताजी को बुलाना शुरू कर दिया करती थी । आज उस दृश्य की एक झलक पाने हम सब तरस रहे हैं । मुझे याद है पिताजी के देवलोक गमन के उपरांत भी गौरैया समाज का आना जारी था , किंतु उस परंपरा को अनवरत न रख पाने की व्यस्तता भरी जिंदगी ने गौरैयो का आना भी बंद करा दिया । ग्रह- नक्षत्र और ज्योतिष – शास्त्र के विद्वान मेरे पूज्य पिताजी कहा करते थे , जिस घर में पक्षियों का आना लगातार जारी रहता है वहां वास्तु दोष प्रवेश नहीं कर सकता ।
हिंदू धर्म- ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि, जिन घरों में महिलाएं गौरैया जैसे पक्षियों का ख्याल रखती हैं , उनके दाना पानी की व्यवस्था करती हैं , उन घरों में रहने वाले बच्चों की उम्र दीर्घायु प्राप्त करती है । इतना ही नहीं जिन घरों में गौरैया अपना नीड (घोंसला) बनाती और रहती है , घोंसले में अंडे देती और बच्चों को सेती है , उन घरों की महिलाओं से बांझपन कोसों दूर रहता है । गौरैया के विषय में किस्से भी सुनाए जाते थे और उसकी गतिविधि से मौसम परिवर्तन की जानकारी भी मिलती थी । घाघ – भड्डरी जैसे कवि भी अपनी रचनाओं में ऐसा उल्लेख करते देखे जा सकते हैं । ऐसे वर्णन भी मिलते हैं कि यदि गौरैया मैदानों की धूल पर लोट लोट कर स्नान करे तो यह समझ लेना चाहिए कि इस मानसून अच्छी बारिश होगी । अब हम चाह कर भी घाघ- भड्डरी के काव्य साहित्य में छिपे इस रहस्य को प्रमाणित नहीं कर सकते ! कारण यह कि ना तो अब मैदान बचे हैं और ना ही धूल । कंक्रीट और डामर की सड़कों पर धूल ना होने से गौरैया का धूल स्थान नजर ही नहीं आता तो , फिर आज बारिश की भविष्यवाणी कैसे संभव है ? वर्तमान में कंक्रीट के बेजान बसते शहरों में माता-पिता को ही लोग अपने साथ रखने तैयार नहीं हो पा रहे हैं , तो गौरैया के घोसले का स्थान कहां संभव है ? अब हमारी संस्कृति पक्षियों के लिए क्या सोचे ? जब पारिवारिक सदस्यों के लिए ही स्थान ना हो ।
मैं आज अपने इस पर्यावरणीय आलेख को लेख-बद्ध करते हुए कुछ कड़वी सच्चाई की दुनिया में गोते लगाने लगा हूं। इस 21वीं सदी में जब हमारे बच्चे खुद फास्ट फूड पर निर्भर रहने लगे हो तो , गौरैया जैसी पक्षी के लिए दानों का इंतजाम कैसे हो ? अब गौरैया के घोसलो के लिए मनुष्य के पक्के मकानों में जगह नहीं ! शायद यही कारण है कि महिलाएं भी बच्चों के लिए तरसती देखी जाने लगी है ! बांझपन के बढ़ते मामलों के चलते ही ” इन विट्रो फर्टिलाइजेशन ” (आईवीएफ) इसे यदि हिंदी में कहूं तो भ्रूण प्रत्यारोपण , जिसकी सहायता से बांझपन से पीड़ित जोड़े को बच्चों की सौगात दी जा रही है , की ओर दौड़ लगाना पड़ रहा है । हमें यदि नैसर्गिक संगीत का आनंद लेना है तो गौरैया के लिए अपने घरों में स्थान सुरक्षित करना ही होगा । हम गौरैया का धूल स्नान नहीं देख पा रहे हैं शायद इसी कारण सावन भी सूखा बीत रहा है । पानी के लिए हाहाकार करती मानव प्रजाति टैंकर आते ही सिर – फुटव्वल करने लगती है । मैं जब बात करता हूं अपने बच्चों से चिड़ियों की चहचहाहट या कलरव की तो वे पूछ बैठते हैं , यह क्या होता है ? गौरैया कैसी होती है ? क्या होता है नैसर्गिक संगीत ? इस तरह के प्रश्नों से मुझे यह चिंता सताने लगी है कि मैं किस तरह गौरैया के चित्रों से सजे पन्नों को संभाल कर रख सकूं ? गौरैया की फुदकन से जुड़े वीडियो को कहां और कैसे सेव कर सकूं , कि आने वाले समय में बच्चों को दिखा सकूं कि , इसे कहते हैं-” गौरैया ” ! अपनी युवा पीढ़ी से यही निवेदन करना चाहता हूं कि इतनी प्यारी छोटी सी, पक्षी गौरैया को इतिहास के पन्नों पर सिमट जाने विवश न करें ।
डॉ सूर्यकांत मिश्रा
राजनांदगांव ( छत्तीसगढ़ )
विश्व गौरैया दिवस 20 मार्च : “गौरैया है तो , वास्तु दोष नहीं होता “
34
previous post