Home छत्तीसगढ़ 15 मई अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस: संयुक्त परिवार है मजबूत, एकल परिवार मजबूरी

15 मई अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस: संयुक्त परिवार है मजबूत, एकल परिवार मजबूरी

by Surendra Tripathi

आज अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस के दिन परिवारों की संरचना पर कुछ लिखने को मेरी कलम उद्यत कर रही है । हमने अपने इतिहास में सबसे पहले संयुक्त परिवारों को पाया है । यह एक ऐसा परिवार है , जहां पर माता पिता के साथ चाचा – चाची,  ताऊ- ताई तथा बच्चों की पूरी टीम एक साथ निवास करती रही है । संयुक्त परिवार में वह ताकत है जो बंधी हुई लकड़ियों के गट्ठे के रूप में समझी जा सकती है । इन्हीं लड़कियों को जब गट्ठे से अलग कर दिया जाता है तो उनकी शक्ति भी विभाजित हो जाती है ! जहां गट्ठे के रूप में लड़कियों को तोड़ पाना असंभव प्रतीत होता है , वहीं गट्ठे से अलग होने के बाद एक-एक लकड़ी को बारीक-बारीक तोड़ा जाना सहज हो जाता है ! हम इस उदाहरण में संयुक्त रूप से रहने की ताकत को समझ सकते हैं । आज यही शक्ति समाज में बिखरी हुई दिख रही है । अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस के दिन इस बात पर विचार करना जरूरी है कि संयुक्त परिवारों के बिखराव से सबसे ज्यादा तकलीफ किस वर्ग को हो रही है ? संयुक्त परिवारों का टूटना अनेक मामलों में मजबूरी और विवशता के रूप में सामने आ रहा है । इस सच्चाई को भी हम नकार नहीं सकते हैं कि संयुक्त परिवार की ताकत प्रबल होती है जबकि एकल परिवार अकेलेपन के साए में अपना जीवन व्यतीत करने संघर्ष करता रहता है । बढ़ती जनसंख्या तथा घटते रोजगार के कारण परिवार के सदस्यों को अपनी आजीविका चलाने के लिए शहर छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ रहा है । परंपरागत कारोबार या खेती-बाड़ी की अपनी सीमाएं हैं, जो परिवार के बढ़ते सदस्यों के लिए सभी आवश्यकताएं जुटा पाने में असमर्थ दिखाई पड़ रही हैं । यहीं से शुरू होता है परिवारों का टूटना, जो आज एक मजबूरी बनी हुई है ।
संयुक्त परिवारों के बिखराव और एकल परिवारों की स्थापना से सबसे अधिक कष्ट परिवार के बुजुर्गों को उठाना पड़ रहा है । जब परिवार का एक सदस्य अपने पूरे परिवार से कट कर अलग हो जाता है तो उसे अपने बुजुर्ग माता पिता की चिंता भी ऐसे लगने लगती है मानो वह उसकी चिंता न होकर परिवार में रह रहे बहुत से लोगों की चिंता है । दूसरी ओर एक व्यक्ति के अलग होने से अन्य व्यक्तियों की सोच कि बुजुर्गों की सेवा का कर्तव्य अलग हुए सदस्य का भी है , कहीं ना कहीं बुजुर्गों के लिए कष्टदाई स्थिति का निर्माण कर रही है । इन्हीं दोनों विचारों के बीच बुजुर्गों को वृद्धावस्था की स्थिति में अपनों का सहारा नहीं मिल पा रहा है ! इस बात पर विचार करना भी जरूरी है कि आखिर संयुक्त परिवार टूट क्यों रहे हैं ? जहां तक मैं समझता हूं संयुक्त परिवारों के टूटने का महत्वपूर्ण कारण प्रतिदिन बढ़ रहा उपभोक्तावाद है । प्रत्येक व्यक्ति को इस उपभोक्तावाद ने महत्वाकांक्षी बना दिया है । अधिक सुविधाएं पाने की लालसा के चलते पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है , और स्वार्थ परता बढ़ती जा रही है । स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि एकल परिवार का विचार रखने वाला व्यक्ति अपनी खुशियां परिवार या परिजनों में नहीं बल्कि अधिक सुख साधन जुटाकर अपनी खुशियां बढ़ाने में ढूंढता रहता है । यही कारण है कि वह संयुक्त परिवार के बिखरने का कारण बन रहा है । यह कहना भी गलत नहीं होगा कि एकल परिवार में रहते हुए मनुष्य भावनात्मक रूप से विकलांग होता जा रहा है । जिम्मेदारियों का बोझ तथा बेपनाह तनाव सहन करना पड़ रहा है । यद्यपि अनेक विवशताओं के चलते हो रहे सम्मिलित परिवारों के बिखराव के वर्तमान दौर में संयुक्त परिवारों का महत्व कम नहीं हुआ है , बल्कि उसका महत्व आज भी स्पष्ट नजरों से देखा जा सकता है ।
संयुक्त परिवार के फायदे को एकल परिवार में रह रहे लोगों के द्वारा नकारा नहीं जा सकता है। परिवार के प्रत्येक सदस्य की सुरक्षा अथवा उसकी जिम्मेदारी परिवार के प्रत्येक सदस्य मिल जुलकर पूरी कर दिखाते हैं । किसी भी सदस्य की स्वास्थ्य समस्या , सुरक्षा समस्या , आर्थिक समस्या पूरे परिवार की समस्या होती है , ना कि उसकी खुद की । कोई भी अनपेक्षित रूप से आई परेशानी संयुक्त परिवार में बड़ी सहजता के साथ सुलझा ली जाती है । किसी सदस्य पर गंभीर बीमारी के आ जाने पर परिवार के सभी सदस्य अपने सहयोग से उस बीमारी से निजात पा लेते हैं । इसी तरह आर्थिक समस्या भी आड़े नहीं आ पाती है । सबसे बड़ा फायदा यह की परिवार के बुजुर्ग की जीवन – संध्या भी बड़े ही आनंदमय वातावरण में गुजर रही होती है । संयुक्त परिवारों में सदस्यों की संख्या अधिक होने से परिवार में होने वाले कार्यों का विभाजन भी आसान हो जाता है । प्रत्येक सदस्य अपने हिस्से में आने वाले कार्य को अधिक ऊर्जा के साथ संपन्न कर पता है । व्यक्तिगत जिम्मेदारी से प्रत्येक सदस्य मुक्त रहता है । तनाव मुक्त रहकर अधिक खुशी का एहसास भी हो पता है । कार्यक्षमता अधिक होने से व्यापार उन्नति की ओर बढ़ता रहता है । सभी सदस्यों का जीवन उल्लासपूर्ण व्यतीत होता है । परिवार में प्रत्येक बच्चा दादा-दादी, चाचा-चाची , ताऊ-ताई आदि का प्यार और स्नेह पाकर बड़े ही उल्लास पूर्ण वातावरण में अपना बचपन बीता पता है । यहीं से वह अपने भविष्य के जीवन के लिए सद व्यवहार और अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियां के निर्वहन का तरीका भी सीख पाता है । दूसरी ओर हम देखें तो एकाकी परिवार में माता-पिता दोनों के नौकरीशुदा होने पर उन्हें वास्तविक प्यार भी नहीं मिल पाता है । बच्चों को संस्कारित करने , चरित्रवान बनाने  अन्य लोगों के साथ खेलने कूदने , समय बिताने , मनोरंजन तथा हृष्ट-पुष्ट बनाने में जो सहयोग संयुक्त परिवारों के रूप में मिल पाता है , वह एकल परिवार में कल्पना के रूप में भी सामने नहीं आ पा रहा है ।
आज का युवा अपने बचपन से ही दुनिया की चकाचौंध से प्रभावित रहा है । उसने बचपन से ही उन राजशाही ठाट के दर्शन किए हैं जो उनके माता-पिता ने अपने बचपन में कल्पना भी नहीं की थी । उसने बचपन से ही कलर टीवी से लेकर मोबाइल ,  कंप्यूटर , ए सी आदि जैसी सुविधाओं को अपने जीवन में पाया है । यह सारी ऐसी सुविधाएं हैं जिसकी कल्पना भी आज के बुजुर्गों ने नहीं की थी । गर्मी की रातों में छत पर एक साथ सोना और ठंडी हवा का आनंद लेना , परिवार के सभी सदस्यों का एक साथ बैठकर भोजन ग्रहण करना , सभी सदस्यों का आपस में विचारों का आदान प्रदान होना , एक दूसरे की तकलीफ को समझना और उसे दूर करने हेतु अपने विचार रखना , आज के युवाओं के जीवन से मीलों दूर जा चुका है । वर्तमान समय में अपने भविष्य को गढ़ने की संकल्पना लिए युवकों का यही प्रयास होता है कि वह अधिक से अधिक संपन्नता जुटाकर अपनी गरिमा साबित कर दिखाएं । सफलता , असफलता प्राप्त करने में या चरित्र निर्माण में अभिभावकों और माता-पिता के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है । यदि सफलता का श्रेय माता-पिता को प्राप्त होता है तो बच्चे के चारित्रिक पतन या उसके व्यक्तिगत विकास के अवरुद्ध होने पर भी माता-पिता की लापरवाही ही सामने आती है । आज का युवा इससे कुछ भिन्न विचार रखता है । वह सफलता का श्रेय सिर्फ अपनी मेहनत और लगन को देता है और असफलता के लिए परिवार के बुजुर्गों को दोषी ठहरता आ रहा है !  वह परिवार के बुजुर्गों के लिए सिर्फ दो वक्त की रोटी , कपड़ा और दवाई को ही जरूरी मानता है । वह भी तब जब उसे परिवार में संस्कार मिले हों । युवाओं की यह सोच भी सामने आ रही है कि बुजुर्गों ने अपना जीवन जी लिया है । उनके लिए समय क्यों बर्बाद किया जाए  ? वे यह भी मानते रहे हैं कि अब बुजुर्ग  अपनी मौत की प्रतीक्षा कर रहे हैं , जो प्रकृति के अनुसार हर किसी के लिए तय की गई है ।
मानवीय समाज में आज ऐसे परिवारों की भी कमी नहीं जहां मां ने अपना पूरा जीवन विधवा या परित्यक्ता होकर , अनेक कष्ट उठाकर अपने परिवार का पालन पोषण किया । यह भी देखने में आ रहा है कि पिता ने बिना पत्नी के अर्थात बच्चों की मां के अभाव में अपने बच्चों को माता-पिता दोनों का प्यार देकर बड़ा किया !  परिवार में पिता की विधवा बहन पारिवारिक सुख नसीब ना होने से साथ में रहकर जीवन बिता रही है । बावजूद इन सबके वर्तमान पीढ़ी अपनी पत्नी के साथ आनंदपूर्वक जीवन बिताने का ही स्वप्न संजो रही होती है। इस तरह की सोच से आज की पीढ़ी यदि खुद को उबार लेती है और परिवार के महत्व को समझने का प्रयास करती है , तो मेरे विचार से अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस का महत्व सिद्ध किया जा सकता है ।
डॉ सूर्यकांत मिश्रा
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)

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