हमने इसी पृथ्वी पर एक समय ऐसा भी देखा है ,जब इंसान और प्रकृति के बीच गलबहियां वाला दृश्य सुकून दिया करता था । पृथ्वी के शरीर पर उसके श्रृंगार स्वरूप पेड़ – पौधों को मनुष्य स्नेह से निहारता और उसकी सुरक्षा ही उसका मुख्य उद्देश्य हुआ करता था । पशु पालन के मामले में भी मानवीय व्यवहार मूक जानवरों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण से परिपूर्ण था । अब इस इक्कीसवीं सदी में न जाने क्या हो गया है कि मनुष्य और प्रकृति एक – दूसरे के स्नेह को भूल चुके हैं और लगातार गर्म हो रही पृथ्वी ने मनुष्य के लिए बड़ी चुनौती पेश की है । क्या हमने कभी यह सोचा कि यह वैमनस्यता आखिर क्यों पैदा हुई ? वक्त रहते हमें इस पर विचार करना होगा । मनुष्य ने प्रगति तो बहुत की और चंद्रमा तक की यात्रा में सफलता के परचम लहराए ,किंतु अब वही मनुष्य मंगल गृह तक पहुंचने जिस तरह के व्यवहार कर रहा है, वह कहीं न कहीं कुदरत पर कुल्हाड़ी चलाने से कम नहीं है । हम याद करें उस जमाने को जब खूबसूरत नदियां आम जन – जीवन के बीच चर्चा का विषय हुआ करती थीं । एक वह समय भी था जब इस खुशरंग फिज़ा में तैरते पक्षियों का कलरव कानों में रस घोल जाता था । अब हम उस सदाबहार लगने वाले वातावरण से महरूम क्यों है ?
हमारे बिगड़ते पर्यावरण पर जब हम गंभीर चिंतन की मुद्रा में होते हैं तो हमें वह दृश्य अपनी ओर आकर्षित कर रहा होता है , जहां पेड़ – पौधों से सु -सज्जित इस वसुंधरा पर ज्येष्ठ और बैशाख माह की तपन भी धरती को गरम नहीं कर पाती थी । इस धरती पर निवास कर रहे मनुष्यों के चेहरों पर सूरज की तपन का प्रभाव तनिक भी परेशान करने वाला नहीं होता था । पृथ्वी में चारों ओर वृक्षोंं की घनी छाया थके – मांदे राहगीरों को कहीं भी अपने आगोश में लपककर ठंडी छांव का एहसास कराते देखी जा सकती थी । हमने जब से वैश्विक विकास की तस्वीर का खाका अपने जीवन में खींचना शुरू किया तभी से हमारा मानवीय समाज धीरे – धीरे प्रकृति से दूर जाने लगा और वर्तमान में ऐसी स्थिति निर्मित हो चुकी है जो हमें कई – कई मीलों तक वृक्षोंं के दर्शन नहीं करने दे रही है । उल्लासमय जीवन जीने के लिए स्वच्छ जलवायु , बारिश की बूंदों से खिलखिलाते खेत ,नदियों की बाढ़ के किस्से हमें उमंग प्रदान किया करते थे । उन दिनों गरीब से लेकर अमीर जन – जीवन जिस राहत और सुकुन के मालिक हुआ करते थे , उस वातावरण को आज हम अपनी सारी दौलत लुटाकर भी नही पा सकते हैं । आखिर यह विडंबना क्यों ? क्या इस पर हमें गंभीर नहीं होना चाहिए ? यदि हम कहते हैं कि यह चिंतन जरूरी है ,तो यही तो हमारे पर्यावरण की चिंता है । फिर लापरवाही का अंत क्यों नहीं हो रहा है ?
बड़ी विडंबना और दुःख का विषय है कि पूरी दुनिया में तेजी के साथ पांव पसार रही आक्रामक और जलाकर रख देने वाली गर्मी ने हर सुंदर चेहरे की रौनक पर ग्रहण लगा दिया है । यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अब हमारी शस्यश्यामला धरती बड़ी तेजी के साथ विनाश की ओर अग्रसर है । वायु प्रदूषण से लेकर कचरों का अंबार , जल स्तर का लगातार भू – गर्भ के नीचे उतरना , जल प्रदूषण , वन संरक्षण के प्रति बरती जा रही लापरवाही और सोना उगलने वाली धरती का बंजर होते चले जाना ऐसी विनाशकारी परिस्थितियों को जन्म दे रहे हैं जो हमारे अपने पर्यावरण पर कहर बनकर टूट रही है । आज स्थिति यह है कि हम कहीं बारिश के कहर से कराह उठते हैं तो कहीं वायु प्रदूषण की काली धुंध के चलते अपने नीलगगन के दर्शन भी नहीं कर पाते हैं ! क्या इन विनाशकारी घटनाओं के पीछे हमारा अपना नजरिया ही हमें आइना नहीं दिखा रहा है ? वास्तव में देखा जाए तो हमारे पर्यावरण से जुड़े उक्त सारे पहलू अनेक प्रकार के प्रदूषण से ही पैदा हुए हैं । इन्हें यदि मनुष्यों का कारनामा ही कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । वर्तमान समय में वाहनों और पॉलीथिन का बढ़ता चलन अपने शबाब पर है , जिसके खतरनाक प्रभाव को झेलना मानवीय क्षमता से बाहर की बात है । पॉलीथिन से जुड़े एक नए शोध में यह बात खुलकर सामने आई है कि पॉलीथिन को गलाने में धरती को एक हजार वर्ष का लंबा सफर तय करना पड़ रहा है !
हरी – भरी धरती को बंजर करने के बाद बढ़ते प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि जहां गंदगी फैलाने वाले तत्व मौजूद हों , बीमारियां भी प्रायः वहीं अपने पांव पसारा करती है । इसके विपरित जहां साफ – सफाई है वहां बीमारियां भी आने से घबराया करती हैं । औद्योगिकरण का सहारा लेकर धन कमाने की धुन ने लोगों को अंधा बना दिया है । कल – कारखानों से निकलने वाले गाढ़े काले पदार्थ लगातार हमारी धरती पर जहर बनकर स्थाई रूप से चिपके हुए हैं । परिणाम स्वरूप पृथ्वी का गर्भ जहरीले पदार्थों से भर रहा है । मनुष्य का स्वभाव लालची प्रवृत्ति का होता है । वह अपनी स्वार्थ पूर्ति के आगे परिणामों की परवाह नहीं करता है । देखा जाए तो मनुष्य ने धरती के पर्यावरण का विनाश करके खूब प्रगति की है !
पर्यावरणविद इस धरती पर निवासरत मनुष्यों को यही सलाह देते नहीं थक रहे हैं कि प्रदूषण को काबू करने और पर्यावरण को संतुलित करने का सीधा और सरल उपाय यही है कि मानव प्रजाति अपनी फितरत में बदलाव लाते हुए कुदरत के करीब जाए । जब हम ऐसा करना शुरू कर देंगे तो बड़ी मात्रा में घने और ऑक्सीजन युक्त पेडों को इस धरती पर अपनी जड़ें मजबूत करने का अवसर प्राप्त होगा । इसी तरह कल – कारखानों की स्थापना आबादी से दूर स्थानों पर करनी होगी । पर्यावरण और विकास जैसे महत्वपूर्ण विषयों को एक ही रथ में सवार करके अपने साथ लेकर चलना होगा , ताकि अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली कहावत समाप्त हो सके ।
डॉ. सूर्यकांत मिश्रा
राजनांदगांव ( छ. ग. )
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