नईदिल्ली (ए)। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर किसी व्यक्ति के मरने से पहले दिया गया बयान ‘संदिग्ध’ है और उसके समर्थन में कोई और साक्ष्य नहीं है, तो उस बयान के आधार पर किसी को दोषी ठहराना सही नहीं है। शीर्ष कोर्ट ने अपनी पत्नी की हत्या के मामले में एक व्यक्ति को बरी किया।
जस्टिस सुधांशु धुलिया और जस्टिस एहसानुद्दीन अमानुल्लाह की बेंच ने कहा कि मृत्युपूर्व बयान एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है और केवल इसी के आधार पर दोषसिद्धि की जा सकती है, क्योंकि आपराधिक कानून में इसका विशेष महत्व होता है। हालांकि इस बयान पर भरोसा करने से पहले उसकी गुणवत्ता की जांच करनी चाहिए और और पूरे मामले के तथ्यों पर विचार करना चाहिए। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2008 में कथित तौर पर जलाकर अपनी पत्नी को की हत्या करने के दोषी व्यक्ति को बरी कर दिया। बेंच ने कहा कि निचली अदालत ने उसे उसकी पत्नी के मृत्युपूर्व बयान के आधार पर दोषी ठहराया था।

बेंच ने अपने चार मार्च के फैसले में कहा, दूसरे शब्दों में अगर मृत्युपूर्व बयान शक से घिरा हुआ है या मृत्यु पूर्व बयान में विसंगति है, तो अदालतों को यह पता लगाने के लिए पुष्टि करने वाले साक्ष्य की तलाश करनी चाहिए कि किस मृत्यु पूर्व बयान पर भरोसा किया जाना चाहिए। बेंच ने कहा कि अदालतों को ऐसे मामलों में सावधानी से काम करने की जरूरत है। बेंच ने कहा ऐसे मामलों में जहां मृत्यु पूर्व बयान संदिग्ध है, पुष्टि करने वाले साक्ष्य के अभाव में अभियुक्त को दोषी ठहराना सही नहीं है।
पीड़िता ने मृत्युपूर्व दो बयान दिए थे, जो उसके बाद के बयानों से ‘पूरी तरह से अलग’ थे। इसमें मजिस्ट्रेट के समक्ष दिया गया बयान भी शामिल था, जो उसका आधिकारिक मृत्यु पूर्व बयान बन गया। बेंच ने कहा कि जांच में दहेज उत्पीड़न के पहलू से भी इनकार किया गया। आदेश में कहा गया कि आरोपी और महिला के परिवारों के बीच संबंध खराब हो गए थे।
महिला की मौत के कुछ साल बाद व्यक्ति के भाई ने उसके ससुर और साले के खिलाफ मारपीट का मामला दर्ज कराया था। बेंच ने अपील को स्वीकार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट के फरवरी 2012 के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें हत्या के कथित अपराध के लिए उसकी दोषसिद्धी और उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा गया था।